भारत देश महान,
तेँ नेतासँ अधिकारी धरि अधिक व्यक्ति बैमान।
अति उदार ई देश,
लोक सभा धरि लुच्चो-लम्पट लै निर्बाध प्रवेश।
अद्भुत अछि ई भूमि,
लूटि-लूटि घर भरय, ताहि मदमे पुनि नाचय झूमि।
एतय न लाजक छूति,
पत्नीकेँ पहिराय ताज जहले सँ चलबय जूति।
देखू आँखि निड़ारि,
कयने अछि सकदम्म बाघ केँ घुरखुड़ बैसि बिलाड़ि।
चढ़ल जाय नित कर्ज,
जाओ निखत्तर ई समाज, छै तकर न ककरो गर्ज।
धन्य धन्य जनतन्त्र,
सतत गरीबक हक खयबा लै रचल जाय षडयन्त्र।
ई थिक पुण्यक धाम,
लोकतन्त्र मजगूत रहय तेँ ली नहि धर्मक नाम।
रहू धर्म निरपेक्ष
ताबत धरि जा धरि छाति पर चढ़ि नहि बैसय म्लेच्छ।
ताधरि सहि ली क्लेश
जाधरि देशक कोनहु कोनमे बाँचल धर्मक लेश।
ततबे दिन धरि कष्ट
जतबा दिन धरि एक-एक जन भय न कल अछि भ्रष्ट।
किछुए दिन सन्ताप,
पैसि रहल अछि रोम रोममे क्रमशः पापक बाप।
सुनू फोलि सब कान,
जन-प्रतिनिधि केँ छोड़ि, शेष हम सब छी परम अकान।
शासन अछि सन्नद्ध,
दुख-दारिद्र्ये दूर करक हित प्रतिनिधि छथि प्रतिबद्ध
आबि न सकत विपत्ति,
जखन विदेशक बैंकहिमे छनि संचित सब सम्पत्ति।
जँ किछु होइछ देरी,
हिनक दोष नहि, एकरा मानू अपने कर्मक फेरी।
राखू सब सन्तोष,
जँ किछु होय असुविधा, तकरा बुझू कपारक दोष।
करी न मनमे खेद
भीतर-भीतर सब पाटीमे छै अपने मतभेद।
ताधरि जुनि अगुताइ,
छैक खजानामे जाबत धरि बाँचल एक्को पाइ।
आओत स्वर्णिम प्रात,
पड़ले रहब चितंग, पेट पर रहत विधर्मिक लात।
व्यार्थ न क्यौ घबड़ाइ,
खाउ राबड़ी भरि भरि इच्छा, चाटू बैसि मलाइ।
देशक उन्नत भाल,
असल मोड़ पर सबठाँ छथिहे बैसल गुरू-घण्टाल।
एतबा राखू ध्यान,
राजनीति माने थिक फूसिक सबसँ पैघ दोकान।
चमकत तखन ललाट,
लोकसभामे जयता चुनि चुनि जखने मूर्ख चपाट।
फुजल उन्नतिक बाट,
शासन-सूत्र सम्हारि लेता जहिए तस्कर सम्राट।