तन-मन-धन तुम पर वारे मा !
शेष बचा क्या जो अब वारूँ ?
लो अब जनम-जनम के पुण्यों की-
पूँजी का बोझ उतारूँ
उसको भी चरणों पर वारूँ
तेरी ही मिट्टी से उपजा
तेरा ही आकाश निहारा
तेरी गोदी में ही खेला
कूदा बन तेरा हम-तारा
तेरी ही यह मलय वायु-
है बनी मातु-श्री! साँस-सहारा
तेरी ही खातिर फाँसी पर-
झूले, अपनायी थी कारा
बलिदानों ने बंधन तोड़े,
स्वतंत्रता से रिश्ते जोड़े
हर्षाकुल आँखों से निकले-
आँसू से तब चरण पखारूँ,
शेष बचा क्या जो मैं वारूँ?
यह स्वतंत्रता जब तक भू-
नभ रहे, फले-फूले, इठलाये
इसकी रक्षा में मा! भले-
हमारी पोर-पोर कट जाये
लहराता यह रहे तिरंगा-
नक्षत्रों की ज्योति चूमता
विश्व शांति के लिये-
बीच का‘चक्र-सुदर्शन’ रहे घूमता
शोणित की हर बूँद-बूँद से-
इसके तीनों रंग सँवारूँ
तुम हँसती हो तो वसंत-
छाता उपवन में
मा! तेरी मुस्कान तडित बन-
चमके घन में
तेरी ही साँसों से मलय-
पवन बहता है
तेरा ही हिम-हास दिशाओं-
में सजता है
तेरी ही स्मिति तो-
सूर्योदय-चन्द्रोदय
हिम शिखरों पर, जलधि-
तरगों पर तेरा सुहास सजता है
देकर सरबस, मात्र माँगता-
जीती बाजी कभी न हारूँ
हर क्षण, हर पल तुम्हें उचारूँ
शेष नहीं कुछ जो मा! वारूँ।