खिलते हैं फूल
गमकती है महक
धरा से क्षितिज तक ...
कितने हाथ
विविध वर्ण
ऊपर को उठते
थरथराते हैं... !
निहारते हैं
सतत
गतिशील ज्योतिपुँज
रवि-रथ को
अपलक ...
गन्ध-पूत
अनगिनत
भाव-दूत
ऋतुमती धरित्री के
नभ तक
सरसराते हैं !