(गिरजाकुमार माथुर की पुस्तक 'भीतरी नदी की यात्रा' पढ़कर)
असम्भव है
गया कल ठीक वैसा ही उतर आए
यहाँ से वहाँ तक इकसार मादकता नज़र आए
खिला लो फूल,
पत्ती को हँसा लो कल्पनाओं में
युवा उद्गार गा लो
मूँद आँखें भावनाओं में
तुम्हें फ़ुरसत मिली है—
लंच में खाली सहन पाकर
उठा लो प्यार की वर्तुल लहरियाँ
झील की झालर
मगर मुमकिन नहीं है
इन सुगंधों की बुनावट में
उमर की तार पर चढ़ती हुई तासीर मर जाए
बिहारी की नज़र से देखने की बान की तह में
सजी-सँवरी हुई-सी ज़िन्दगी ही दीख पाएगी
रगों में तैरती
बालिश्त-भर की छटपटाहट में
समाचारों भरी बीमार धरती छूट जाएगी
सुनो ! यह भाववाचक तस्करी
अब टूटने को है
पता क्या, किस घड़ी
इस 'गोचरी' पर गाज गिर जाए ।