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भावी पीढ़ियों के नाम / बैर्तोल्त ब्रेष्त / राजेश चन्द्र

सचमुच कितना अन्धेरा समय है
जिसमें जी रहा हूँ मैं !
निष्कपटता अब एक अर्थहीन शब्द भर है ।
एक सौम्य माथा परिचायक है
हृदय की कठोरता का ।
वह जो हँस पा रहा है
तय है कि उसने नहीं सुनी हैं अब भी
दिल दहला देने वाली ख़बरें ।

आह, यह कैसा समय है
जब पेड़ों के बारे में बतियाना भी
अकसर एक जुर्म माना जाता है
जबकि यह अन्याय के ख़िलाफ़ चुप रहने से कम नहीं ।
और वह जो निकल पड़ता है
टहलने चुपचाप सड़क पर,
क्या वह चला नहीं गया है
अपने दोस्तों की पहुंच से बाहर ?

मुसीबत जबकि ऐन सिर पर है?
यह सच है : मैं जीवित हूँ अब भी
पर, मेरा यक़ीन करो,
यह सिर्फ़ एक दुर्घटना है ।
कुछ भी कहाँ रह गया है, जो कर सके
भरण-पोषण के लिए मेरे दावे को सही ?
यह एक संयोग भर है कि मैं बच गया
(यदि भाग्य छोड़ जाता मेरा साथ,
तो नहीं होता मैं ।)

उन्होंने मुझसे कहा : खाओ और पीओ ।
ख़ुश रहो कि तुम ऐसा कर सकते हो !
पर किस तरह मैं खा-पी सकता हूँ
जब भूखों से छीना गया निवाला मेरा भोजन है
और मेरे गिलास में किसी प्यासे का पानी है ?
और तब भी मैं खाता और पीता हूँ ।

मैं ख़ुशी-ख़ुशी बुद्धिमान हो गया होता ।
प्राचीन पुस्तकों ने हमें बताया है
कि बुद्धिमानी है क्या :
दुनिया के खटराग से बचो
अपने थोड़े-से समय को भरपूर जीओ
डरो मत कभी किसी से
हिंसा मत करो कभी
बुराई के बदले अच्छाई करो,
इच्छाओं की पूर्ति नहीं, बल्कि विस्मृत करो उन्हें
ज्ञान के रास्ते खोजो ।
मैं इनमें से कुछ भी न कर सका :
फिर भी जी रहा हूँ मैं इस अन्धेरे समय में ।
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मैं शहरों में आ गया उपद्रव के दौर में
जब भूख ही भूख पसरी थी हर ओर ।
मैं लोगों के बीच आया,
जब दौर विप्लव का था
और मैंने विद्रोह किया उनके साथ मिलकर ।
सारा समय इसी में बीत गया
जितना भी मिला था इस पृथ्वी पर मुझे ।
मैंने अपना भोजन अक्सर
मार-काट के बीच ही ग्रहण किया ।

मौत की परछाइयां पड़ती ही रहीं मेरी नीन्द पर ।
और जब भी मैंने प्यार किया,
पूरी तटस्थता से किया ।
जब भी देखा प्रकृति की ओर,
पूरी अधीरता से देखा ।
सारा समय इसी तरह बीत गया
जितना भी मिल पाया इस पृथ्वी पर मुझे ।

मेरे समय में सड़कें
दलदल की ओर ले जाती थीं ।
भाषणों ने मुझे हत्यारे की निग़ाह में ला दिया था ।
मैं जो कुछ भी कर सकता था,
वह एकदम नाकाफ़ी था ।
पर मेरे बग़ैर शासक रह सकता था
कहीं अधिक निरापद ।
ऐसी थी मेरी आशावादिता ।
इस तरह वह समय बीत गया था
जितना मिला था इस पृथ्वी पर मुझे ।

तुम, जो इस बाढ़ से उबरोगे,
जिसमें कि हम डूब रहे हैं,
सोचना,
जब भी बात करना हमारी कमज़ोरियों के बारे में
इस अन्धेरे समय के बारे में भी सोचना,
जिनकी वजह से उभर आईं वे ।
अपने जूतों से ज़्यादा देश बदलते आए हम
वर्ग-संग्राम में, नाउम्मीद
जब हर तरफ़ केवल अन्याय ही था
और प्रतिरोध नहीं था ।

हमें केवल इतना ही मालूम था कि :
सड़ान्ध के प्रति घृणा भी
माथे की कठोरता बढ़ा देती है ।
अन्याय के प्रति आक्रोश भी
बढ़ा देता है आवाज़ में कटुता ।
आह, हम
जिन्होंने ख़्वाब देखा था
नेकी की बुनियाद रखने का,
अपने आपको भी नहीं बना सके नेक ।

पर तुम, जब आख़िरकार
यह समय आ ही जाए तो याद रखना
कि आदमी अपने साथी की मदद
कर ही सकता है,
हमारे बारे में फ़ैसला करते हुए
बहुत अधिक सख़्ती मत बरतना ।

अँग्रेज़ी से अनुवाद : राजेश चन्द्र