कौन समझेगा पीड़ा यहाँ दीन की
चाह है ही नहीं, भाव है ही नहीं
दर्द होता रहा, दर्द सहता रहा
कोई सुनता नहीं, सिर्फ कहता रहा
धूप माथे कड़ी, छाँव है ही नहीं
कौन समझेगा पीड़ा यहाँ दीन की
चाह है ही नहीं, भाव है ही नहीं
शाम आती रही पर सुहानी नहीं
कुछ तराना नहीं, कुछ कहानी नहीं
यह है उजड़ी जमीं, गाँव है ही नहीं
कौन समझेगा पीड़ा यहाँ दीन की
चाह है ही नहीं, भाव है ही नहीं
साथ कोई नहीं अश्रु पीता रहा
मृत्यु में डूब कर व्यर्थ जीता रहा
दुख नहीं जायेगा, पाँव है ही नहीं
कौन समझेगा पीड़ा यहाँ दीन की
चाह है ही नहीं, भाव है ही नहीं