भाषाएँ एक निराकार की ओर जाना चाहती हैं।
बगैर उतार चढ़ाव वाली एक सार्वत्रिक आवाज़ में
अंतिमतः विलीन होकर वे अभिव्यक्ति को पूर्णता देने के
प्राचीन मिशन पर कार्यरत हैं।
शब्दकोश वे अपनी दीर्घायु के लिए नहीं बढ़ा रहीं
बल्कि वे सबकुछ समेट कर ले जाना चाहती हैं
अपनी अंतिम इच्छा के समुद्र में।
गणनाएँ उनके विरुद्ध हैं, कविता और संगीत उनके साथ।
यह चुप का एकांत नहीं होगा अंत पर,
सबकी एक ही भाषा की पहचानहीन आवाज़ होगी।
संज्ञा की उसे ज़रूरत न होगी।