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भाषा / वीरू सोनकर

वह जीत का स्वांग है
जब मैंने तुमसे किसी दूसरी भाषा में बात की
और जब चिंता की
तो सामने तप रही सड़क के एक हिस्से को
अपनी परछाई से सहला दिया

मैं अपना भय,
बह रही उस नदी से बताता हूँ
नदी भय पी कर
ठन्डे पत्थरो को तट पर पटक
आगे बढ़ जाती है

मैं घर लौट आता हूँ
और दीवारो के कान,
आइनों के मुँह साफ़ करता हूँ

एक्वेरियम में धैर्य उगल रहे नदी से आये
उन नवागंतुकों पत्थरो के स्वागत में
मछलियाँ,
उनका मुँह चाट रही है

असंवाद के संवाद में बदलने के उसी शोर में
फिर हमारी बहस मातृभाषा में थी!