भाषा के घिसे-पिटे चालू मुहावरे में,
अनुवादित हो नहीं सके हम-तुम।
चाहा था सही नाम
देना सम्बंधों को,
वेदी पर किए गए
फेरे, अनुबंधों को;
आँचल के छोर और उत्तरीय के कोने
दाग लगे धो नहीं सके हम-तुम।
बूझती-समझती-सी
ठिठकी, फिर चली बात,
दाईं-बाईं कवट
करती रह गई रात;
अपने-अपने घेरे, घिरे रहे प्रश्नों से,
अपराजित सो नहीं सके हम-तुम।
सृजन के क्षणों में रत
लगाते रहे लेखे,
युद्ध के प्रतीकों में
घर के सपने देखे;
आइने लिए खंडित, आड़े-तिरछे साए
प्रतिबिंबित हो नहीं सके हम-तुम!