मेरी भाषा ढूँढती है
मुझ में मनुष्यता के तत्त्व!
माँ कही जाती है भाषा,
तो हज़ारों आँखें हैं उसकी!
यह मेरी माँ ने कहा था
कि वह सब जानती है
मेरी नस नस पहचानती है,
मुझे लगता है,
हमारी भाषा माँ भी
पहचानती है हमारी नस-नस।
वह जानती है
कि
कब हम उसमें उल्लास से फूटते हैं
कब
गालियों में रूठते हैं
कब
उगने लगते हैं भोर से,
कब रात से डूबते हैं।
माँ पहचानती है,
कब हमारे गान
आत्मा से निकले हैं
कब
शरीर की वासना से,
कि हमारी कविताओं में
कितना प्रेम का पारदर्शी पानी है,
कितनी चमत्कार की कहानी है,
माँ जानती है
कब हम उसे ॠचाओं सा गाते हैं
और कब उसे
तोड़ मरोड़ कर अपने खाँचे में
ज़बरदस्ती बिठाते हैं,
माँ जानती है
जब बढ़ जाते हैं हम, उसकी छाती पर पाँव रख कर
जब हम झुकते हैं उसके आगे
अपने अपराध स्वीकार कर।
माँ जानती है
जब हम उसे सजाते हैं
अपने छंदों, अलंकारों से,
गीत गाते हैं,
उसके पवित्र रूप के कल्पना की तारों से।
माँ सब जानती है,
हम उसी में साँस लेते हैं
रोते हैं, हँसते हैं
वो हम को समेटती है, सँभालती है
और हर युग में दो कदम आगे बढ़ाती है।
सच ही है,
उसकी हज़ारों आँखें होती है,
वह हमें देखना सिखाती है
और अपने को पाना,
उसी में हमने अपने को जाना।
सच ही वो माँ है,
जिसमें हम पलते हैं, बढ़ते हैं,
उस से हो कर, उस में,
अपने तक चलते हैं!!