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भीगे दिन / दिनेश दास

नई किताब के पन्ने पलटने के पहले ही
अचानक आई पहली बारिश:
नम धूल से
नई किताब की तरह सौंधी गन्ध जागती है बेतरतीब।
राजपथ पर गर्म भाप उड़ती है
मिट्टी की खोपड़ी से उठती है जैसे नई साँस:
वे जैसे हमारे जीवन की तरह --
मिट्टी के ऊपर रख कर थोड़ा-सा आभास
बिला जाते हैं हवा के ऊपर।
आकाश के कुण्ड में
अन्तहीन
रात-दिन चलते हैं मेघों के जहाज़,
पेड़ों छतों गाँवों जनपदों पर पड़ती है परछाई ।

बिजली के नीले विस्फोट में
तूफ़ान में जलता है शहर का उद्धत कठोर प्रान्त,
धुँधले नर्म रेखाचित्र की तरह
अंकित रहता है आकाश के लौह रंग में ।
पानी गिरता है
पेड़ों के खुले केशों पर
तड़ागों तालाबों के पानी पर,
डबरों बावड़ियों झीलों के ऊपर
पीली गंगा के किनारे-किनारे
जीवित प्राणियों की तरह पानी बस उफनता रहता है ।

मूल बँगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी