चिर-पोषित आशा वह मेरी, चिर संचित सम्पत्ति प्रधान
खोया मैंने किन पापों से, तुझे आज ही कष्ट महान
देख मोह-निद्रा में मुझको, पड़ा हुआ क्या आठों याम
कर तेरा अपहरण किसी ने, रिक्त किया मेरा हृद्धाम?
या कि क्षुब्ध मम मनोवृत्ति ने, पा करके अधिकार अखण्ड
दियाआज मम हृदय-राज्य से, तुझको यह निर्वासन दण्ड?
आज स्वार्थ-रत रमणी सम, पूत प्रेम-बन्धन को तोड़
पदाघात कर कठिन हृदय में, गई आज तू मुझको छोड़?
नहीं, तुझे भी सह्य नहीं है, जीवन में ऐसा विच्छेद
विवश छोड़ तू गई मुझे, है जिसका तूझको अतिशय खेद
जब मध्यान्ह-पवन ने आकर, तप्त किया जल, थल, आकाश
पाया मैंने उसमें तेरे, व्यथित-हृदय का खर-विश्वास।
कल-निनादिनी तटिनी ने भी, सन्ध्या को हो भ्रान्त महान
पहुँचाया मेरे कानों तक, विरह वेदना का तव गान
शून्य रात्रि के स्वप्न-राज्य में, हुआ जरा आशा-संचार
उपजी मेरे उर में तेरे मधुर मिलन की चाह अपार।
सुन करके पद-शब्द मार्ग में, चौंक पड़ा था मैं बहु बार
तुझको आई समझ दौड़कर, नाहक मैंने खोला द्वार
हुआ प्राप्त जब निकला घर से, मैं अति व्याकुलता के साथ
देखा सम्मुख दृश्य भयानक, रख करके छाती पर हाथ।
उदयाचल पर निर्दयता से, किया गया था तेरा घात!
तेरे उर के रक्त-पात से, रंजित था प्राची का गात!
चिर पोषित आशा वह मेरी, चिर संचित सम्पत्ति प्रधान!
क्या अदृष्ट को यही इष्ट था, हा अभाग्य! यह कष्ट महान!
-सरस्वती, अक्तूबर, 1917