बच्चा
पहचान लेता है अंधेरे में भी
दूध से भरी छातियाँ
और हम
बड़े होते हुए भी
नहीं पहचान पाते
अपनी भूख
कि ये पेट की है
या स्वार्थ की,
मन की है
या शरीर की,
इच्छाओं की है,
या बदले की,
और तड़पते रहते हैं
ताउम्र
उसी भूख की तड़प से
उसे
अलग-अलग नामो से पुकारते हुए
ओढ़े रहते हैं चादर
समझदारी की
और भीतर दुपकाए रखते हैं
अपनी मूर्खता
जो रोकती रहती है हमें
पहचानने से हमारी भूख