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भूमिका (ग़ज़ल की सुरंगें) / कांतिमोहन 'सोज़'

उसूलन मैं इस बात का क़ायल हूं कि शायर को शायरी और उसके पाठक के बीच आने का न तो हक़ है और न उसकी ज़रूरत ही है। लेकिन यह संग्रह एक ऐसे शायर का है जो पिछले पचास साल से शायरी कर रहा है, मगर एक शायर की हैसियत से न तो उसकी पहचान बनी और न उसने इसकी कोशिश ही की। इसलिए शायद उसके सामने ख़ुद को पेश करने की मजबूरी है और इसीलिए शायद उसे इस गुस्ताख़ी की माफ़ी भी मिल जाय।
मेरी पहली ग़ज़ल उर्दू दैनिक तेज में 1956 में छपी थी और अब पहला संग्रह 44 साल बाद सामने आ रहा है। मेरी ज़िद थी कि मैं ग़ज़ल हिंदी में नहीं, उर्दू ज़बान में लिखता हूं इसलिए मेरी ग़ज़लें पहले उर्दू ज़बान में ही छपनी चाहिए। तब मुझे उर्दू लिपि क़तई नहीं आती थी और ठीक से तो आज भी नहीं आती। इस ज़िद का नतीजा ये हुआ कि 1982 में जब कुछ दोस्तों ने मेरी इधर-उधर छपी हुई रचनाओं को खोज निकाला और उन्हें क़दम मिलाके चलो शीर्षक से हिंदी में प्रकाशित करने का फ़ैसला किया तो मैंने उसमें अपनी एक भी ग़ज़ल शामिल नहीं की। आख़िरकार मैंने एक मित्र से अपनी ग़ज़लों को उर्दू लिपि में लिखवाया और 1990 में उसे गुनाहे-सुख़न के उनवान से छपवाया। उर्दूवालों ने बड़ी दरियादिली से काम लिया और न सिर्फ़ मेरी ग़ज़लों को उर्दू अदब के हिस्से के तौर पर तस्लीम किया बल्कि उर्दू अकादमी दिल्ली ने उसे 1990 की बेहतरीन शायरी मानकर पुरस्कृत भी किया। इससे मुझ पर मेरे कुछ दोस्तों का दबाव बढ़ गया कि अब मेरा कलाम हिंदी में भी आना चाहिए। मैं नियमित रूप से ग़ज़ल कहता रहा हूं और अगर मैंने अपनी तमाम ग़ज़लों को संभालकर रखा होता तो आज मेरे पास आठ-दस संग्रहों की सामग्री तो ज़रूर होती, लेकिन मैंने ये सार-संभाल 1983 के बाद ही शुरू की इसलिए अब मेरे पास ब-मुश्किल तमाम 4-5 संग्रहों की सामग्री ही निकल पाएगी। इस मामले में मैं इतना बड़ा आलसी हूँ कि संग्रह तैयार करने का काम मुझे बर्फ़ीली चोटी को सर करने से कम मुश्किल नहीं लगता, इसलिए जो काम 1960-61 तक हो जाना चाहिए था वो अब इक्कीसवीं सदी मैं हो रहा है।
मेरा यह दावा नहीं कि इस लम्बे अरसे में मैं लगातार शेर कहता रहा हूं। शायरी के अलावा सियासत में भी मेरा दख़ल रहा है और अक्सर शायरी को पीछे धकेलकर सियासत ने मुझे धर दबोचा है और मैं देखता ही रह गया हूं। लेकिन अक्सर और बेश्तर मैंने इन दोनों में तआवुन बनाए रखा है और इसमें सबसे बड़ा मददगार जनवादी लेखक संघ रहा है, 1982 में जिसकी स्थापना के बाद से ही मैं उसमें सरगर्म रहा हूं। कई बार लगा है कि ग़ज़ल मुझसे छूट गयी है या रूठ गयी है और अब मैं उसे कभी नहीं मना पाऊंगा। अदबी ज़िंदगी में ऐसे वक़्फ़े बेहद तकलीफ़देह और तशवीशनाक रहे हैं क्यूंकि ग़ज़ल में मेरी जान बसती है और उससे जुदा होने का मैं तसव्वुर भी नहीं कर सकता। ऐसे वक़्फ़ों में रूठी ग़ज़ल को मनाने के लिए मैंने कैसे-कैसे पापड़ बेले हैं। मैंने ज़बरदस्ती ग़ज़लें कही हैं। अपने महबूब शायरों--मीर, ग़ालिब, अकबर इलाहाबादी, फैज़ और जिगर की ज़मीनों पर अपनी ग़ज़ल के बदनुमा खोखे खड़े कर देने की गुस्ताखी की है, बिना इस बात की पर्वा किये कि यह कोशिश कितनी बचकाना या बेहूदा नज़र आयगी या बज़मे-अदब में इस बात को लेकर क्या रद्दे-अमल होगा? ग़ज़लगोई मैं एक गुनाह की तरह छुप-छुपकर करता रहा हूं। मेरे लिए यह हरकत एक क़िस्म की मश्क़ थी, रियाज़ था जिसकी मदद से मैं उन कठिन दिनों में ग़ज़ल से अपना रिश्ता बनाए रखना चाहता था; इस 'दामाने-खयाले-यार को मैं अपनी तमाम नातवानी के बावजूद कसकर पकडे रखना चाहता था। मुझे कतई चिंता न थी कि इन हलकी-फुल्की ग़ज़लों का ह्श्र क्या होगा, मैं खुद भी इन्हें अपनी ग़ज़लों में शुमार करूंगा या रद्दी की टोकरी के हवाले कर दूंगा।
 आज बेझिझक कह सकता हूं इस कोशिश ने ग़ज़ल से रिश्ता बनाये रखने और नए सिरे से क़ायम करने में मेरी बड़ी मदद की है। हास्य-व्यंग्य की तरफ़ मेरा रुझान शुरू से ही रहा है और मौक़ा मिलते ही मैं उसमें हाथ आज़माता रहा हूं। ग़ज़ल की इन सुरंगों की मदद से ही मैं उन संगीन और दमघोटू खाई-खंदकों से नजर आ सका हूं।
मेरी शायराना ज़िंदगी में 1947 के भारत-विभाजन,1984 के सिख-विरोधी दंगों, 1992 में बाबरी मस्जिद मिस्मार करने और 1996 में लम्बे
पार्टी-जीवन के आकस्मिक अंत का ख़ास मुक़ाम है। 2002 के बाद गुजरात-हत्याकांड भी इनमें शामिल हो गया है। अगर ये हादिसे मंज़रे-आम पर न आये होते तो मैं शायद एक शहरी की हैसिअत से ज़्यादा सुखी और शायर की हैसियत से कंगाल होता। मेरी शायरी पर इन हादिसात का साया हर जगह मौजूद है। मैं अच्छा ग़ज़लगो होने का दावा नहीं करता लेकिन अपने-आपको ग़ज़ल का एक अच्छा तालिबे-इल्म ज़रूर समझता हूं। मैंने बड़ी तनदिही से उर्दू ग़ज़ल को समझने और सराहने के कोशिश की है और अगर मेरे कलाम में दो-चार अच्छे शेर निकल आते हैं तो इसका श्रेय मुझे नहीं बल्कि उन शायरों को ही जाता है जिनके कलाम ने मुझे न सिर्फ़ अदब बल्कि ज़िंदगी के तईं भी एक नज़रिया अता किया है और जो मेरी ज़िंदगी में उस्तादों का मुक़ाम रखते हैं। बेशक मैंने ग़ज़ल की परंपरा का निबाह करने की कोशिश की है; बह्र, रदीफ़ और क़ाफ़िए की पाबंदी निभाने की कोशिश की है और वज़्न को दुरुस्त रखने का ध्यान रखा है। मेरी चाहत रही है की मेरी ग़ज़ल में मतले और मक़ते को मिलाकर सात शेर हों। मुमकिन है कि इस कोशिश के सबब कुछ ऐसे शेर कलाम में दाख़िल हो गए हों जिन्हें आम तौर पर भर्ती के शेर कह दिया जाता है।

मैंने साक़ी,मयख़ाना,गुल,बुलबुल,शमआ,परवाना,क़फ़स,बाग़बां,मक़्तल,डारो-रसन आदि पारंपरिक प्रतीकों को ज्यूं का त्यूं रहने दिया है। अपने आदर्श शायर फ़ैज़ की तरह मैंने भी उनका इस्तेमाल अपने दौर की ज़रूरियात के हिसाब से किया है जो अक्सर अपने पारंपरिक से जुदा और कभी-कभी उलटा ही काम अंजाम देता है। मैं नहीं समझता कि यह छोटी सी बात किसी शायर से इससे ज़्यादा वजाहत की दरकार रखती है।
दिसम्बर-2000