डी एम मिश्र की कविताओं का स्वाद अलग है। जैसे नरेश सक्सेना,अदम गोंडवी, कुमार अम्बुज,दिनेश कुशवाहा, अष्टभुजा शुक्ल आदि की कविताओं को पढ़कर हम जान सकते हैं कि वह अमुक कवि की कविता हैं वैसे ही डी एम मिश्र की कविताओं को पढ़कर भी। कुछ कसैला, कुछ चटपटा स्वाद। यहाँ ठंडा चूल्हा है। भूखी आँत है। चलनी जितनी छेदों वाली कमलिया की चूती मड़ई है। खाली डेहरी है। गुलाबो की बढ़ती उम्र है और पुरुषों की बदलती दृष्टि है। खराब नीयत के अश्लील बाटों से उसके वज़न का नाप -जोख करते मनचले हैं। शोहदों के झुण्ड में फँसी गुलाबो है।
इज़्ज़तपुरम् की कविताओं का मूल स्वर गुलाबो की बेइज़्ज़ती का प्रतिकार है। कवि की मान्यता है कि सिर्फ कोसने से नहीं होता हालात का हल। सबके हाथ बदल सकते हैं (बदलने चाहिए) मुक्के में। मरे हुए एवं मरते हुए मुहूर्तों का अंकन निम्न पद्यांशों में -
मर गयीं कलाएँ / चले गये कद्रदान / घुँघरूओं के बोल पर / रियासतें चढ़ जातीं
टूटी सारंगियाँ / फूटे तबले / पुरानी किताबें / ठुमरी की / दादरा की / चाट गये दीमक
पॉच हजा़र में / लिया पटा / गुलाब बाई उसका / रखा है नाम
नई है खड़ी मूँछ देखकर / डर जाये
कोठे की लौंडिया / ज़हरमोहरे के जंगल में / रास्ते का प्याऊ
गुलाबबाई / मिस रोजी की / लुभावनी काया में /तब्दील हो / फिर से बुलन्दी पर
देह व्यापार / अब चुपके नहीं / छुपके नहीं / कैरियर है / वृत्ति है / शौक है / शान है।
स्पष्ट हैं कि डी एम मिश्र की चिन्ता पेट से लेकर आत्म सम्मान और इज़्ज़त तक हैं। उनका मानना है कि शाम की चिन्ता नहीं है लेकिन सबेरा कब होगा ? कवि चाहता है कि ठंडे चूल्हे और भूखी आँत के रूप में घिर आयीं साँझ के अँधेरे का अवसान यथाशीघ्र सबेरे के रूप में होना चाहिए। इज़्ज़तपुरम् की कविताएँ इसी उम्मीद को समर्पित हैं।
--- शिवमूर्ति
इज़्ज़तपुरम् की प्रति मिली। पुस्तक भेजकर आपने इज़्ज़त ही बख़्शी। एक ही साँस में पूरी पुस्तक पढ़ गया। औरत आप की चिन्ता के केन्द्र में है और उसकी बेबसी का आपने सटीक चित्रण किया है। नये कवि प्रायः शास्त्रीय भाषा के व्यामोह में ऐसा फँसते हैं कि निकल नहीं पाते। भाषा के स्तर पर भी आप की कविताएँ एकदम ताजा़ हैं - टटकी। ज़्यादातर कविताओं में औरत महज एक मादा के रूप में उभरी है, शायद हमारे समाज में औरत का यही एक रूप तो नहीं है।
बहरहाल मैंने कविताओं का मन से रसास्वादन किया। मेरी बधाई स्वीकार करें।
---रवीन्द्र कालिया