मेरा महबूब शायर 'वसीम बरेलवी' है। मैं उससे और उसके कलाम दोनों से मुहब्बत करता हूँ। 'वसीम' के अशआर से मालूम होता है कि ये महबूब की परस्तिश में भी मुब्तिला रह चुके हैं। लेकिन मैं इब्तिदा में किसी की परस्तिश नहीं करता था। मेरे और वसीम के ख़यालात भौंचाल की कैफ़ियत रखते हैं।
वसीम के कलाम में आगही और शऊर की तहों का जायज़ा है और ऐसा शऊर और आगही कैफ़ो-सुरूर का गुलदस्ता है। यह अक्सर खदोखाल से बुलंद होकर कायनात की रंगीनियों और दिलकशियों से लुत्फ़ हासिल करते हैं। दरअस्ल शायरी भी वही है, जो अपने वुजूद में हमें ज़िन्दगी की नज़दीकतर चीज़ों का एहसास दिलाती है। 'वसीम' की शायरी एहसासे-हयात की एहसास अफज़ा शायरी है और इस आईन-ए-एहसास में दूर के अक्स नज़दीक के अक्स पर जिला कर रहे हैं, लेकिन 'वसीम' हर अक्स के दरमियान मुस्तक़बिल वुजूद का एहसास दिला रहे हैं।
मैं चल रहा हूँ कि चलना भी एक आदत है
ये भूलकर कि ये रस्ता किधर को जायेगा।
-प्रोफ़ेसर रघुपतिसहाय 'फ़िराक़' गोरखपुरी