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भूमिका / सुराही / प्राण शर्मा

 ’सुराही’ के मधुमयी मुक्तक ’वाक्यं रसात्मकं काव्यं’ को चरितार्थ करते हुए मन को भरपूर छूते हैं। उनकी छटा निराली है – मन्त्र मुग्ध करने वाली है। सुरा सुराही और साक़ी के माध्यम से जीवन के विविध पक्षों को जन साधारण की भाषा में उजागर करना कवि की महान उपलब्धि है। ’सुराही’ को जितनी बार मैंने पढ़ा है उतनी बार मुझे यह रोटी जिधर से भी तोड़ी, मीठी ही लगी है।

- रामकृष्ण पाराशर, ६७ अलवर्स, क्रोफ्ट रोड, कोवेंट्री

 

’सुराही’ में बसे हों जिसके ’प्राण’ उसको क्यों कहते हैं आप ’शरमा’? उसने शर्म से नाता भी तोड़ दिया था, जब साक़ी की गरदन को सुराही समझ बैठा था।

-महेशचन्द्र द्विवेदी, लखनऊ

प्रियबन्धु,

 आप द्वारा प्रेषित मुक्तक संग्रह ’सुराही’ की कतिपय पंक्तियाँ देख गया हूँ। निश्चय ही श्री प्राण शर्मा का यह प्रयास अपनी सीमाओं में प्रशंसनीय है। हर छंदोविधा और काव्यरूप के कुछ सहजात विषय होते हैं — उनसे जड़कर वह निखर उठते हैं। देशकाल की बदलती स्थितियाँ और तद्‌नुरूप रचनाकार की युगचेतना कभी-कभी इन सीमाओं को अतिक्रान्त कर जाती है। प्रस्तुत रचना में दोनों ही सहजात और युगजात भू चेतना की भूमियाँ मौजूद हैं।

लय और मात्रा में रवानगी है।

— राम मूर्ति त्रिपाठी

२ स्टेट बैंक कालोनी

देवास रोड, उज्जैन (म.प्र.)

 

 

बन्धुवर विकल जी,

मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई कि श्री प्राण शर्मा का ग़ज़ल संग्रह ’सुराही’ के नाम से प्रकाशित हो रहा है। साक़ी, सुराही और शराब के पारम्परिक प्रतीकों से माध्यम से इसमें की तरह की उद्‌भावनाएँ की गई हैं। आशा है इसमें रसिकों को आनन्द आएगा।

- डॉ. रवीन्द्रभ्रमर, डी. लिट., शाकुन्तलम मैरिस रोड, अलीगढ़

 

इंग्लैण्ड के प्रवासी भारतीय श्री प्राणनाथ शर्मा की ’सुराही’ कृति के कुछ छन्द पढ़े। विदेश में रह रहे शर्मा जी को हिन्दी से न केवल लगाव है, अपितु वह इस भाषा में सफलता पूर्वक कविता लिखते हैं, यह जानकारी हर्षप्रद समाचार है।

हिन्दी काव्य-धार में ’बच्चन’ की ’मधुशाला’ का नामोल्लेख तो किया जाता है, लेकिन उसकी परम्परा आगे चली नहीं। इसका कारण था बदलती हुई परिस्थितियाँ। स्वतंत्रता के पश्चात तो अनेक आर्थिक-सामाजिक प्रश्न पैदा हो गे। पूरा देश उनसे जूझ रहा है। परन्तु दूरदर्शन तथा सिने जगत्‌ में न केवल अँग्रेज़ी भाषा, वरन्‌ अँग्रेज़ी संस्कृति भी अपने पैर जमा रही है। अब मदिरा-पान फ़ैशन में आ गया है। इन बदली हुई परिस्थितियों में ’सुराही’ रचना उपयुक्त लगती है। आज भारतीय समाज में मदिरा-पान मन-बहलाने का अनिवार्य साधन बनता जा रहा है। इसलिए प्राणनाथ शर्मा का निम्नांकित छन्द भारत के बदलते सांस्कृतिक परिवेश का दर्पण कहा जा सकता है –

बेझिझक होकर यहाँ पर आइए

पीजिए मदिरा हृदय बहलाइए

नेमतों से है भरा मधु का भवन

चैन जितना चाहिए ले जाइए

 

’बच्चन’ द्वारा प्रवर्तित धारा को आगे बढ़ाने में शर्मा जी ने ’सुराही’ लिखकर जो योग दिया है उसके लिए मैं उन्हें बधाई देता हूँ, और आशा करता हूँ कि भविष्य में भी वह बदलते परिवेश के अनुकूल भारतीय मानसिकता की तस्वीर प्रस्तुत करने में सफल होंगे।

— मोहन अवस्थी

८१४ बैंक रोड, इलाहाबाद

 

अनुशंसा

 

प्रवासी प्राण शर्मा जी के सुराही मुक्तक संग्रह की पाण्डुलिपि के अवलोकन का सुअवसर मिला। प्रसन्नता हुई। मुक्तक की प्रायः सभी विशेषताओं का श्री शर्मा जी ने यथा सम्भव निर्वाह किया है। भाषा, भाव, रस-रीति तथा कला-माधुर्य तो मार्मिक हैं ही, रचना पाठक के मन पर इस विधा के अन्तर्गत, नवचिन्तन का प्रभाव डालती है। वैदिक सोमरस से लेकर अद्यतन मदिरा के कला सौन्दर्य को समेटे हुए है। लौकिक से पार लौकिक तथा आध्यात्मिक भावों का इसमें समावेश है।

ऋग्वेद के-

“मधुबाल ऋतायते,

मधु क्षरन्ति सिन्धवः।

माध्वीर्नः सन्त्वोष्धीः,

मधु नक्त मनोषसो।“

जैसे भाव इसमें अन्तर निहित हैं। यंत्र-मंत्र-तंत्र, धार्मिक, राजनीतिक एवं सामाजिक क्षेत्रों में इसका व्यापक विस्तार है। कवि की ये भावभरी पंक्तियाँ, चिन्तन को झकझोर सी देती हैं —

ज़िन्दगी है, आत्मा है, ज्ञान है,

मदभरा संगीत है ’औ’ गान है।

सारी दुनियां के लिये यह सोमरस,

साक़िया तेरा अनूठा दान है।

X X X X

साक़िया मुझको पिला दे तू सुरा,

मधु कलश मेरी नज़र से मत चुरा।

 

श्री अनवर मिर्ज़ापुरी ने किता ठीक कहा है,

ज़िन्दगी एक नशे के सिवा कुछ नहीं,

तुझे पीना न आये तो मैं क्या करूँ।

 

इस प्रकार यह ’सुराही’ ऐसी रचना धर्मिता वालों के लिये प्रेरणा स्रोत बनेगी; इसमें संदेह नहीं।

श्री शर्मा को इस निमित्त अनेक साधुवाद के साथ हमारी मंगल कामनायें हैं।

 
— पशुपति नाथ दुवे,

अध्यक्ष सोनांचल साहित्यकार परिषद

सोनभद्र, उ.प्र., भारत

 
सम्मति

 
प्रवासी भारतीय भाई प्राण शर्मा की कृति ’सुराही’ अपने में पूर्णतया सफल कृति है जिसकी जितनी प्रशंसा की जाय कम होगी। विद्वान कवि ने सुराही के माध्यम से जीवन की आह्लादमयी घड़ियों को एक जगह संचित कर दिया है जहाँ से जब इच्छा हो उसे अपने जीवन के पात्र में उड़ेल लिया जाय ताकि खुशियाँ आज के तनावपूर्ण जीवन में बिखर पड़ें और जीवन सँवर जाय। कवि के भावनाओं की, विचारों की और आध्यात्मिक पहुँच की जितनी ही प्रशंसा की जाय कम है। कवि की मानवीय संवेदनशीलता और जीवन के मर्म को छूने की कला एक विलक्षण प्रतिभा है। कवि का प्रयास श्लाघ्य एवं स्तुत्य है।

— रामजी पाण्डेय ’विमल’

निदेशक –सोनांचल साहित्यकार परिषद,

सोनभद्र, उ.प्र.