भूल का पर्याय / देवेन्द्र कुमार

कुछ न पूछो हाल इस जी का
आज दिन तृन तोड़ते बीता ।

हर ख़ुशी के साथ कोई फूल
भूल का पर्याय केवल भूल
बस यही हमने नहीं सीखा ।

दराज़ों में हाथ बन्द पड़े
मेज़ पर कुछ नींद के टुकड़े
समझ में आया तुम्हें रीता ।

समाचारों के लिए कहना
और अपने से छिपे रहना
रोज़ की यह ज़िन्दगी भी क्या ?

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