क्या पिता अब भी होंगे कहीं
कहीं से क्या मुझे देखते होंगे
क्या फिर से लौट आयेंगे वे पितृ बनकर इस पितृपक्ष में
जिस की परिणति में
पाएँगे मुझे मग्न
मैं कितनी नग्न हूँ स्मृति में उनके लिए
वे कैसे चीन्हेंगे
कि क्या मालूम हो वे सुनते हों मेरी पुकारें
उनको सच में ध्यान घिर आता हो मेरा
क्या वे बादल होंगे भादौ के
या घास या हवा या कि होंगे वे कुछ भी नहीं
पर होंगे क्या
वे झाँक लेते होंगे क्या
और फेर लेते होंगे दृष्टि उचाट होकर बीत चुके उनके संसार से
जिसमें चलती जाती हूँ मैं सीधी रेखा में
रास्ता समझकर
खाते पीते सोते जागते हँसते हुए से भी अधिक
भूल जाते हुए अपने पिता को