भूल ही जाएँगे एक दिन
टिमटिमाते तारों के बीच
खिलखिलाकर हँसते चाँद को
काली रात की आँखों से
रुक-रुककर रिसते आँसुओं को
ओर बर्फीली हवाओं के बीच
दूर तक फैले घने अंधकार को
भूलना ही पड़ेगा आखिर
अपने दुर्दिनों में हुए अपमानों को
और राख के नीचे
दिपदिपाते हुए लाल अंगार को
एक दिन मान ही लेंगे
कि गुस्सा तो कैसा भी हो अच्छा नहीं
अपनी सहजता के खोल में छुपी
धारदार चालाकी के हाथों
एक दिन खेत हो जाएँगे हम
यही रह जाएगा कहने को
कि हम छले गए समय के हाथों
हम तो भूल ही जाएँगे
पंखुड़िया की दमकती ओजस्विता को
और तितलियाँ पकड़ने वाले हाथों में
लगे रह गए पीले रंग के कणों को।