Last modified on 21 जुलाई 2016, at 22:45

भेद लीला / शब्द प्रकाश / धरनीदास

प्रथम कर्त्ता पुरुष को, कर जोरि मस्तक नाँव।
केकहरा निरुवारि के, अनमोल बोल सुनाँव॥
क कर परिचय करहु प्रानी, कवन अवसर जात।
खोजले तै वस्तु अपनी, छोडि दे बहु बात॥2॥

(ग) ज्ञान गुरु को कान सुनि, धरु ध्यान त्रिकुटी पास।
घूमता एक चक्र भँवरा, और उड़त अकास॥3॥

(ङ) उदय चन्द अनन्द उर अति, मोति बरसै धार।
चमकि बिजुली रेख दहु, दिशि, रूप को कह पार॥4॥

छोट मोट न जान काहुहिँ, सबै एक समान।
जुक्ति जाने मुक्ति पैहो, प्रकट पद निर्वान॥5॥

झगर झूठ पाबारि डारो, झारि झटकि बिछाव।
(ञ) इन्द्रियन के स्वाद कारन, आपु जनि जहि दाव॥6॥

टेक टंडस छोडि दे, करु साधु शब्द विवेक।
ठौर सोइ ठहराइयले, जहबसै ठाकुर एक॥7॥

डार पात समूह शाखा, फिरत पार न पाव।
ढोल मारत साधुजन, नहि वहुरि ऐसो दाव॥8॥

(ण) नाम नौका चढ़ो दे, बिना वाद विवाद।
तहाँले मन पवन राखो, जहाँ अनहद नाद॥9॥

थकित होइहेँ पाँच वो, पच्चीस रहि हैँ थीर।
दशम द्वारे झल मलेँ, मणि मोति मानिक हीर॥10॥

धोखा धन्धा जबत बन्धा, कथै बहुत उदास।
नर निवहिगो तबहि, जब अमिअन्तरे विश्वास॥11॥

प्रेम जा घट प्रगट भौ, जँह बसै पुन्य न पाप।
फेरि मन तँह उलटि रखु जँह उठै अजपा जाप॥12॥

बिना झूलको फूल फूलो, हिये माँझ मँझार।
भदिया कोइ जानिहै, नहि और जाननिहार॥13॥

मूल मंत्र अकार अद्भुत, निराधार अनूप।
(य) जाय पहुँचे कोइ कोई जन, जहाँ छाँह न धूप॥14॥

राम जपु निज धाम धवला, हृदय करु विश्राम।
लोक-चार विचार परि हरि, प्रीति करु तेहि ठाम॥15॥

वारि तन मन धन जहाँ लगि, धन जिवन प्रान।
समुझि आया मेटि अपनो, सकल बुधिवल ज्ञान॥16॥

(श) सर्व शून्य अशून्य एकै, दूसरो जनि राखु।
(ष) खैर रँड बबूर सेहुँड, सो न फरिहै दाखु॥17॥

रहो अचल अमोल अस्थिर, कहो अविचल बात।
होत नर परमात्मा, तब आतमा मिटि जात॥18॥

छुये ताहि पवित्र हूजै, पुजै मनकी आस।
सही करिहैं संत जन, जत कही धरनीदास॥19॥

भागवत गीता परेखो, समुझि देखो वेद।
जाहि गुरु गोविन्द किरपा, ताहि मिलतो भेद॥20॥