भैंस मरे पर घरभर रोए,
गाज गिरे पर पूरा गाँव।
धूल-धूसरित देश हो रहा,
मारे है जम ठाँव-कुठाँव।
पीठ पसलियाँ चिलक रही आँतों में ऐंठन,
ये दिन बैरी हुए, हुईं रातें भी बैरिन।
महाप्रलय में फँसी हुई फिर
मनुपुत्रों की बूढ़ी नाव।
महज ईंट-गारे को लेकर बिखराए सपने घरगूले,
पंच प्रधान बनाएँ किसको, सबके हैं माटी के चूल्हे।
छुटभैये नेतृत्व कर रहे
लँगड़े दिए फटे में पाँव।
गैरों की क्या बात करें अपनों के होते,
जीवन निखद मृत्यु से कर बैठा समझौते।
धर्मराज फिर लगा रहे हैं,
संतो! आज आखिरी दाँव।