भोगासक्ति-कामना करती रहती जहाँ चित्त चंचल।
‘प्रेम’ नामपर बहती धारा विषय-वासनाकी प्रतिपल॥
वहाँ प्रेमका शान्त सुशीतल बहता नहीं स्रोत निर्मल।
घोर नरक-फल फलता, होता कलुष-कलंक-लाभ केवल॥
सर्वत्यागकी विमल भूमिमें फलता प्रेमरूप शुचि फल।
मिटता सभी एषणा-तम, जब भावद्युति दिपती उज्ज्वल॥
प्रेमराज्यका पावन वह अति मधुर भावमय रंगस्थल।
करते वहाँ रास नित रसमय राधा-माधव दिव्य-युगल॥