107.
पिय बड़ सुन्दर रे सखी! बनि गेल सहज सनेहु।
जे जे सुन्दरि देखन आवै, ताकर हरिले ज्ञान।
तीन भुवन में रूप न तूलै, कैसे करो बखान॥
जे अगुये अस कइल बरतुई, ताहि नेछावरि जाँव।
जे ब्राह्मन अस लगन बिचारल, तासु चरन लपटाँव॥
चारिउ ओर जहाँ तहँ चरचा, आनको नाँव न लेइ।
ताहि सखी की वलि वलि जैहाँ, जे मोरि सावति देइ॥
झलमल झलमल झलकत देखाँ, रोम रोम मन मान।
धरनी हरषित गुन गन गावै, युग युग हो जनु आन॥11॥
108.
काया-वन फूली रहो, लोढै सन्त सुजान।
एकै हरि-भजन मोहि भावै, कै हरिजन को संग॥
काह के शिर पाग लपेटी, काहू शिर दस्तार।
संतन के शिर चंदा झलकै, पै विरलै संसार॥
काहू गर सोने को माला, काहू के गर सूत।
संतन के गर तुलसी-मनियाँ, जाके ग्रह ना भूत॥
कोऊ पूजै देवा देई, कोऊ पूज महेश।
संतन पूजहिँ परम निरंजन, अविगति अलिख नरेश।
योग युक्ति बिनु मुक्ति न सुझै, तिल परमान दुवार।
धरनी कहै काय-परिचय बिनु काहु न पाओ पार॥12॥