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भोटिए / राजा खुगशाल

खेतों में पकने लगती है गेहूँ की फ़सल
धीरे-धीरे गर्माने लगता है मौसम
भेड़-बकरियों के अपने झुण्ड के साथ
भोटिए घर लौटते हैं

पीठ पर ऊन के गट्ठर लादे
नवजात मेमनों को कन्धों पर रखे
वे नदी-नदी, जंगल-जंगल उत्तर की ओर बढ़ते हैं
गंगा-यमुना के उद‍गम की ओर
भाबर के वनों से तिब्बत की सरहद तक

कोई भी पर्वत,कोई भी जंगल
अगम-अगोचर नहीं है उनके लिए
उन्हें आकर्षित करते हैं पेड़ों के कोमल पत्ते
अच्छे लगते हैं उन्हें
लहलहाती घासों के वन, हरे-भरे झुरमुट
घास और पानी जहाँ मिलते हैं उन्हें, भेड़-बकरियों के साथ
वे वहीं रह जाते हैं कुछ दिन

नदी के निर्जन तट पर
ऊन की लच्छियाँ बनाते, तकलियाँ घुमाते
भोटिए प्रकृति के हर रहस्य को जानते हैं
वे जानते हैं कौन-सी नदी
किस स्वर्ग से निकलती है धरती पर
किस मिट्टी से बना है कौन-सा पहाड़
किस ढलान पर उगती है सबसे मुलायम घास

वे देखते हैं
रात के अन्धेरे में अर्राते पेड़, जलते जंगल
वे पहचानते हैं ऋतुओं के रंग
ज़मीन के ज़र्रे-ज़र्रे को
धँसते पहाड़, कटते जंगल,सूखती नदियों को
स्रोतों और सिवानों को

वे बहुत क़रीब से महसूस करते हैं
पहाड़ के हर संकट को
घर से दूर निरभ्र आकाश के नीचे वे
चाँदनी में, जलते अलाव के आसपास नाचते-गाते हैं
वे जंगल में मंगल किए रहते हैं
सोते-जागते नज़र रखते हैं वे
बकरियों के झुण्ड पर
वे कुत्तों के गुर्राने से भाँप लेते हैं
अन्धेरे के सम्भावित ख़तरे ।