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भोर / गोबिन्द प्रसाद


हर क्षितिज को
चाहिए एक सूरज,
सूरज को एक सुब्ह,,
सुबह को
वह भाषा;स्पन्दित हो उठे जिस में
मिट्टी की मूरत
निखरे
धड़के;धरती का पोर पोर
शब्दों के सुनहले उजाले में ।