एक वक़्त था जब
हमारे छोटे और मधुर घर के
बरामदे में लोटती थी
भोर की उजास
और गौरैया व मैना आकर फुदकती रहती थी।
माँ स्नान कर भीगी साड़ी पहन
पूजा के फूल चुनती
कामिन दीदी झाड़ू हाथ में लिए
नलघर का रुख करती
मोहल्ले की बहू-बेटियों की ढेंकी में
पोहा कूटने की आवाज़ भी
कुछ पलों के लिए थम जाती
मैं सोए हुए ही यह सब देखता
देखते - देखते ही
कब सो जाता
मेरे जीवन में सब ओर अन्धकार है
रात की ही तरह ।
मूल बांग्ला से अनुवाद — मीता दास