भोर भये जागे गिरिधारी।
सगरी निसि रस बस कर बितई, कुंज-महल सुखकारी।
पट उतारि तिय-मुख अवलोकत चंद-बदन छवि भारी।
बिलुलित केस पीक अरु अंजन फैली बदन उज्यारी।
नाहिं जगावत जानि नींद बहु समुझि सुरति-श्रम भारी।
छबि लखि मुदित पीत पट कर लै रहे भँवर निरुवारी।
संगम धुनि मधुरै सुर गावत चौंकि उठी तब प्यारी।
रही लपटाइ जंभाइ पिया उर, ’हरीचंद’ बलिहारी॥