ओ आज भी जागे न तुम!
नीहारिका से द्वंद्व कर रवि-कर-निकर विजयी बने,
प्रत्यूष के पीयूष-कण पहुँचा रहे तुम तक घने,
कोमल मलय के स्पर्शसौरभ से, हिमानी से सने
दुलरा तुम्हें जाते; जगाते कूजते तरु के तने;
तो और जागोगे भला किस जागरण-क्षण में, कुसुम!
यह स्वप्न टूटेगा न क्या? भोले कुसुम! भूले कुसुम!
लो! तितलियाँ मचलीं, चलीं, सतरंग चीनांशुक पहन,
छवि की पुतलियों-सी मचलती, मद-भरे जिनके नयन,
हर एक कलि के कान में कहती हुई " जागो, बहन!
जागो, बहन! दिन चढ़ गया, खोलो नयन, धो लो वदन!
अनमोल रे यह क्षण न खोने का शयन-वन में, कुसुम!
कब और जागोगे भला? भोले कुसुम! भूले कुसुम!