मंज़िल-दर-मंज़िल पुण्य फलीभूत हुआ
कल्प है नया
सोने की जीभ मिली स्वाद तो गया।
छाया के आदी हैं
गमलों के पौधे
जीवन के मंत्र हुए
सुलह और सौदे
अपनी जड़ भूल गई द्वार की जया
हवा और पानी का
अनुकूल इतना
बन्द खिड़कियां
बाहर की सोचें कितना
अपनी सुविधा से है आंख में दया
मंज़िल-दर-मंज़िल
है एक ज़हर धीमा
सीढ़ियां बताती हैं
घुटनों की सीमा
हमसे तो ऊंचे हैं डाल पर बया।