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मंज़िल कहाँ / महेन्द्र भटनागर


है अभी मंज़िल कहाँ ?

चल रहा हूँ राह पर अभिनव लिए विश्वास,
लक्ष्य का मिलता कहीं किंचित नहीं आभास,
द्रौपदी के चीर-सा यह बढ़ रहा है पथ,
इति कहाँ ? बीता नहीं दुर्गम अभी तक अथ,
छोर क्या ? आँचल कहाँ ?

रात के घनघोर तम में हिल रहे हैं पेड़,
भूत-सी लगती विजन में मृत्तिका की मेड़
विश्व को उल्लू भयंकर शाप लाया है,
रात रानी-कोप का क्षण पास आया है,
स्नेह के बादल कहाँ ?

जूझना है, जो खड़ी हैं सामने चट्टान,
और करना है नये युग का सबल निर्माण,
दूर जाना है, अथक साहस चरण के बल,
ज्योति-अंतर की जगाकर वेग से अविरल,
चाँद का संबल कहाँ ?