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मंत्रमुग्ध स्वयं जगदीश / प्रवीण कुमार अंशुमान

शिखर भी हो जाए
जब बौना प्रतीत,
शब्दों में समा जाए
जब पूरा अतीत,

जब भविष्य का आमुख
कोई बन जाता हो,
साहित्य पटल पर जब कोई
दृढ़ता से साथी तन जाता हो;

जब किस्सों में चले
बस उसकी ही बात,
जिसकी वाणी से
कट जाए घनघोर अंधेरी रात;

वाणी भी झुककर
जब माँगें आशीष,
सुनकर जिसको मंत्रमुग्ध
हो जाए स्वयं जगदीश ।

जब हो प्रकट चन्दन की
आभा देखो निर्लिप्त,
अनुभूति पाकर जिसकी
चितवन हो जाए संतृप्त;

विराट शिखर के इस प्रहरी का
करता हूँ मैं दिल से गुणगान,
अज्ञात शिखर का जो हरदम
करता रहता है प्रतिपल अनुसंधान ।