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मंथरता से थकान / गीत चतुर्वेदी

मेरी त्वचा की पार्थिव दरारें तुम्हारी अनुपस्थिति का रेखांकन हैं
प्रेम तुम्हारी नीति थी मुझ पर राज करना तुम्हारी इच्छा
मैं तुम्हारी राजनीति से मारा गया

मेरे हृदय में हर पल मृत्यु का स्पंदन है
बाँह के पास एक नस उसी लय पर फड़कती है जिस पर दिल धड़कता है

इतने बरसों में इतने शहरों में इतने मकानों में इतनी तरहों सेरहता आया मैं
कि कई बार सुबह उठने पर यह अंदाज़ा नहीं होता कि
बाईं ओर को बाथरूम पड़ता है या बाल्कनी

इस महासागर में जितनी भी बूँदें हैं वे मेरे जिए हुए पल हैं
जितनी बूंदें छिपी हैं अनंत के मेघ और अमेघ में
दिखने पर वे भी ठीक ऐसी ही दिखती हैं

मैं बलता रहा दीप की बाती की तरह
जिसमें डूबा था वह तैल मुझे छलता रहा
भरी दोपहर बीच सड़क जलाया तुमने मुझे
मुझे कमतर जताने की तुम्हारी इस विनम्रता को चूमता हूं मैं

तुम आओ और मेरे पैरों में पहिया बन जाओ
इस मंथरता से थक चुका हूँ मैं
थकने के लिए अब मुझे गति चाहिए