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मंदिर / विजय कुमार पंत

घंटियाँ
कभी
मेरे मन में तो
नहीं
गूंजी  !

न ही कभी
आत्मा में श्रद्धा
उपजी  !

कभी पैर भी
मदहोश
हो कर चुपचाप
यहाँ तक
नहीं आये

कभी ना तो शीश
नतमस्तक हुआ
न ही मैंने
प्रेममय अश्रुपूरित
सुमन चढ़ाए

अब शायद समय
आया है
तुम भी पहचान लो ,
मैं भी जान लूं

ठीक नहीं है
कि किसी के कहने भर से
ये मंदिर है
ऐसा मान लूं .....