मकान : चार कविताएँ / रामदरश मिश्र

एक

चिड़िया फिर टाँग गयी है तिनके
घोंसला बनाने के लिए
और मैं फिर उजाड़ दूँगा
मैं कितना असहाय हो गया हूँ
इस लड़ाई में उसके आगे
मुझे अपने कमरे की बाँझ सफाई की चिंता है
और उसे आने वाले अपने बच्चों की।

दो

धीरे-धीरे कुछ हाथ
उगा रहे हैं एक छोटा-सा मकान
ईंट और लोहे से
रचना का एक संगीत उठ रहा है
और कुछ दूर पर रह-रहकर
मशीनों की घड़घड़ाहट के साथ
मकानों के अरराकर टूटने की आवाजें आ रही हैं
हाथ थोड़ा रुकते हैं
फिर डूब जाते हैं मकान का संगीत रचने में।

तीन

जी श्रीमान्,
गंदगी यहाँ का सबसे बड़ा मर्ज है
और इस शहर को साफ रखना
आपका बुनियादी फर्ज है
जी हाँ
इसे साफ रखने के लिए
आपको चारों ओर फैलना ही चाहिए
आप जितना फैलिएगा
आपके लिए रास्ते बनाये जायेंगे
आपके पवित्र शौचालयों के लिए
गंदे मकान गिराये जायेंगे
यह शहर तो आपका ही है।
गंदी जनता का क्या
वह तो जिंदा होकर भी मरी हुई है
देखिए न
वह आपके शहर की होकर भी
आपके शहर के किसी पेड़ की छाँह में भी
डरी हुई है।

चार

नंगे आसमान की बेशर्म आँखें
हर पल हमारे प्यार को निहारती हैं
आवारा हवाएँ हमारे नंगे शरीर से गुजरकर
ताना मारती हैं
मैं ऊँची इमारतों के इस शहर में
एक छोटा-सा मकान खोज रहा हूँ
भीड़ से बचकर अकेले में
अपने को देखने की एक अतृप्त इच्छा
कब से ढो रहा हूँ

मुझे एक मकान चाहिए
जिसकी छोटी-सी क्यारी में
एक नन्हा-सा बिरवा रोप सकूँ
जो केवल अपना हो
जिसकी छत के नीचे लेटूँ
तो सदियों से जगी मेरी आँखों में भी
एक निजी सपना हो
मैं एक छोटा-सा मकान खोज रहा हूँ
ऊँची इमारतों वाले इस शहर में।

5-5-81

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