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मजदूर के घर कबूतर / नरेश अग्रवाल

मेरे दादा मजदूर थे
लेकिन अपनी मर्जी के
वे साइकिल के पीछे
अनाज की बोरी रखकर
मुट्ठी भर-भर पूरे गांव में बेचते थे
और थोड़े से - पैसे लेकर
शाम को घर लौटते थे
और उस वक्त
कबूतर उनका इंतजार करते थे
जो बोरे को झाडऩे के बाद
बचा हुआ अन्न खाकर
पानी पीते
और उड़ जाते थे
लोग कहते थे
यह कैसा प्रेम
मजदूर के घर कबूतर
और मेरी दादी
सबकी नजरें चुराकर
हर सुबह थोड़ा - सा
अनाज बिखेर देती थी
जिसे खाकर वे चुपचाप
छत पर उड़ जाते थे
दादा कभी नहीं समझ पाये
इस राज को
हमेशा की तरह
बोरों को झाड़-झाडक़र
अनाज बॉंटते हुए
बहुत खुश होते थे वे ।