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मजबूरी / नरेश अग्रवाल

वह आ तो गया था शहर में
लेकिन पसंद नहीं आई उसे
शहर की तेजी से भागती दुनिया
वह हर दिन सोचता था
इस महीने के आखिर में
लौट जाऊँगा वापस अपने घर
लेकिन उसकी हर चाहत को
रोकता दिखलाई पड़ता था
पुराना लिया हुआ कर्ज
जिसके बीच झॉंकता था
गॉंव के महाजन का चेहरा
जैसे बढ़ रहा हो उसकी तरफ
फैलाये हुए अपने शक्तिशाली हाथ
ले जाने को उसके सारे पैसे
मनीऑर्डर की शक्ल में
और देखते-देखते बदल जाती थी
उसकी सारी चाहत एक खामोशी में
और बढऩे लगते थे उसके पॉंव
वापस अपने काम पर ।