धर्मवीर था धर्मव्रती धर्मावतार-मणिकुण्डल।
ओज-तेज से पूर्ण प्रखर उद्दीप्त कान्ति अति उज्ज्वल।
उर-गंगा में नहीं क्रोध की बाढ़ कभी आयी थी।
मधुर-प्रेम सद्भाव शान्ति की कलित कान्ति छायी थी।
मणिकुण्डल के मुखमण्डल पर सौम्य-सरल छवि अंकित।
वह न किसी भय से जीवन में कभी रहा आशंकित।
वह उदारता का अतुलित आदर्श परम सुन्दर था।
निर्मलताओं से भी निर्मल उसका उर-अन्तर था।
मणिकुण्डल है नाम, श्रेष्ठ नर आत्मतत्व ज्ञानी का।
मणिकुण्डल है नाम, धर्म के रक्षक सेनानी का।
मणिकुण्डल है नाम, प्रेम के परमरूप पावन का।
मणिकुण्डल है नाम, सृष्टि के मंगलमय चन्दन का।
मणिकुण्डल है नाम, धर्म के लिए प्राणदानी का।
मणिकुण्डल है नाम, सत्य में तत्पर बलिदानी का।
मणिकुण्डल है एक दिव्य मणि उस अद्भुत माला की।
करती जो श्री वृद्धि निरन्तर संस्कृति छविशाला की।
ममता, दया, क्षमा, करूणा के सरसी जहाँ विलसते।
सत्य-धर्म के वारिज हरपल रहते जहाँ विकसते।
वही धर्म का पावन उपवन मधुगन्धित है उत्तम।
जो जीवन को आह्लादित कर रखता सुस्थिर निभ्र्रम।
किन्तु धम्र के साथ द्वेष, छल कपट चला करते हैं।
और सत्य के साथ झूठ के ठूठ जला करते हैं।
मणिकुण्डल का मनोमान हरपल-हरक्षण पावन था।
लोभ मोह से रहित अचंचल संयम का उपवन था।
माता-पिता साधु-सेवक श्रद्धा से अपूरित थे।
उर-अन्तर देवत्व सहेजे उन्नत संस्कारित थे।
दिव्य सत्वगुणमय विशेष सद्भाव प्रेम-अचंल में।
जाग्रत थे स्वयमेव सकल सद्गुण श्री मणिकुण्डल में।
वह आज्ञाकारी कुमार सुखसार धर्म-धारी था।
मानवता की सेवा में हर क्षण रत उपकारी था।
वैश्व वंश अवतंश हसं-सा शुचि विवेकधारी था।
सत्य शिरोमणि सत्यनिष्ठ अति और सदाचारी था।
तन के विगलित होने पर छवि-कली नहीं खिलती है।
मनोमान दूषित होने पर शान्ति नहीं मिलती है।
मनोजगत में दुश्चिन्तन का चक्र चला करता है।
दग्ध-विचारों से उर-अन्तर नित्य जला करता है।
मणिकुण्डल का बाल सखा गौतम ब्राह्मण ज्ञानी था।
वह वेदज्ञ कुलीन श्रेष्ठ मन्त्रज्ञ सुविज्ञानी था।
सच्चरित्र द्विजदम्पति के तप का परिणाम मधुर था।
किन्तु मातृ के मनोदोष से दूषित उसका उर था।
ज्ञानी था पर घोर कुटिल कपटी हो गया बिचारा।
लक्ष्य-भ्रष्ट पंथी के जैसा फिरता मारा-मारा।
मनोदोष हरपल उसका मन-मन्दिर दूषित करते।
द्वेष-दम्भ-छलकपट निरन्तर उसके मन में भरते।
किन्तु मित्रता मणिकुण्डल गौतम की बहुत मधुर थी।
दोनों के उर प्रेम-भावना अद्भुत और प्रचुर थी।
समवयस्क दोनों ही हरपल साथ रहा करते थे।
दोनो ही आनन्द-गंग में शान्त बहा करते थे।
मणिकुण्डल में सत्त्वगुणी धारा निर्मल बहती थी।
उसकी छवि में सहज शान्ति की दीप्ति नवल रहती है।
किन्तु साथ ही गौतम में दुर्भाव-द्वेष पुष्पित था।
घोर कुबुद्धि वृद्धि से उसका मन विषकोश अमित था।
अपने भीतर के विचार संस्कार फलित होते हैं।
उग आते संकट-कंटक फिर प्राण विकल रोते हैं।
मधुर हास के पंछी अनुपम उड़ जरते अधरों से।
पीड़ाओं की करूण कथाएँ होती ध्वनित स्वरों से।
होती है छवि श्री विहीन दृग सजल रहा करते हैं।
कुण्ठा की धारा में दुर्जन विवश बहा करते हैं।
और पूर्व इसके दूषण का ज्वार चला करता है।
हरपल हरक्षण मन मंदिर में द्वेष पला करता है।
किन्तु भला दुर्मति क्या जाने इस माया बन्धन को।
ज्यों मावस चाकर न समझता नव प्रभाव वन्दन को।
और उसे वह घोर अँधेरा ही पूनम लगता है।
पावनता को छोड़ निरन्तर खुद को ही ठगता है।
जो अधर्म से धन आता आसक्ति प्रबल करता है।
कर लेता है पान सुधाघट और गरल भरता है।
किन्तु धर्म से अर्जित धन सन्मार्ग प्रशस्त बनाता।
हर लेता आसक्ति, भक्ति की निर्मल ज्योति जागता।
उज्जवल करता कान्ति के कोश अतुल भरता है।
देता सुख-सन्तोष अपरिमित तेज प्रखर करता है।
सत्य-धर्म का व्रती बनाता अमर देह नश्वर को।
शब्द-शब्द सद्ज्ञान जगाता मधुर कर्म के स्वर को।
नाच रही है धरा सत्य की पावन धर्म-धुरी पर।
जिसकी अमित शक्ति के आगे झुका हुआ है अम्बर।
सूर्य, चन्द्र, तारे अनन्त इससे ही सम्बल पाते।
चमक रहे हैं स्वयं युगों से धरा व्योम चमकाते।
सखे! धर्म की दृष्टि सूक्ष्म है वह त्रिकालदर्शी है।
सत्य-शक्ति से सतत सुरक्षित जीवन-उत्कर्षी है।
जब अधर्म-आतंक शान्ति को पीड़ा पहुँचाता है।
बाधित होता धम्र और फिर आगे बढ़ जाता है।
प्राण विकल वेदना गरल को पीकर रह जाते हैं।
अग्नि परीक्षा के पथ पर वे आगे बढ़ जाते हैं।
धर्म-ध्वजा कर उच्च जनों में भक्ति भाव भरते हैं।
जीवन पथ पर ज्योति-रश्मियाँ विस्तारित करते हैं।