भूतपूर्व दस्यू सुन्दरी,
संसद कंदरा कन्दरी !
उन्होंने एक बात कही,
खोपड़ी
चकराए बिना नहीं रही।
माथा ठनका,
क्योंकि
वक्तव्य था उनका
सुन लो
इस चंबल के बीहड़ों की
बेटी से
राजा
पहले पैदा होता था
रानी के पेट से
अब पैदा होता है
मतपेटी से।
बात चुस्त है,
सुनने में भी दुरुस्त है,
लेकिन अशोक चक्रधर
ये सोचकर शोकग्रस्त है
सुस्त है,
कि राजतंत्र
हमने शताब्दियों भोगा
पेट से हो या पेटी से
क्या इस लोकतंत्र में
अब भी
राजा ही पैदा होगा ?
जब भी
इतिहास का
कोई ख़ून रंगा पन्ना
फड़फड़ाया है,
उसने हास-परिहास में नहीं
बल्कि
उदास होकर बताया है—
राजा माने
तलवार,
जब जी चाहे प्रहार।
राजा माने,
गद्दी,
हरम की परम्पराएं भद्दी।
आक़ा-आकाशी,
सेनापतियों सिपहसालारों की अय्याशी।
राजा माने क्रोध,
मदांध प्रतिशोध।
राजा माने
व्यक्तिगत ख़ज़ाना,
लगान वसूलने को
हथेली खुजाना
राजा माने बंदूक
जो निर्बल पर अचूक
मतपेटी से निकले
राजा और रानी वर्तमान में,
साढ़े पांच सौ हैं।
संविधान में
भूतपूर्व दस्यू सुन्दरी और वर्तमान रानी !
दोहरानी नहीं है।
कोई पुरानी कहानी।
अनुरोध है कि
प्रतिशोध को
जातिवादी कढ़ाई में मत रांधना
मतपेटी से निकल कर
कमर पर पेटी मत बांधना।
हमारा लोकतंत्र बड़ा फ़ितना है,
और कवि का सवाल
सिर्फ़ इतना है,
मेहरबानी होगी
अगर आप बताएंगे,
कि प्रजातंत्र में
मतपेटी से
प्रजा के राजा नहीं
शोषित,
पीड़ित
कराहती हुई
अपने लिए
सुख-चैन चाहती हई
प्रजा के सेवक
कब आएंगे ?
इस प्रजातंत्र में
प्रजा के सेवक कब आएंगे ?