जैसी माटी थी उसके देश की
काली-काली
उसके केश थे जो चिपक जाते
तो सूझता नहीं कि क्या करें
देश ही था उसका
हेठार के आगे
गांगी रोकती थी राह
पार का सब
देश ही था दूसरा
एक पोखर था गाँव में
खच्चर चरते हैं अब वहाँ
वहीं नहाती थी सखियाँ समेत
डाँटते थे भैया
कि डूब जाएगी मनकी
हालाँकि मज़बूत थी
खींच लाती मरकहे बैल नाद तक
जी करता सानी भी गोंत दे
मैनिया गाय थी दुआर पर
सफेद पूँछ वाली
उसकी हिलती सींगों पर
तेल इंगोरती थी मनकी
उधर बप्पा भईया जाते कचहरी
इधर सूखी गांगी लांघ
लाल-पीली साड़ी पहन
गंगा के कछारों को
चल देती मनकी
सिनहा, सलेमपुर, त्रिभुआनी घाट
दो कोस का रहता
टप जाती कित-कित करती
खेतों से चुराकर फूट चबाती
और
सियार की तरह
हुआँ हुआँ करती भाग जाती मनकी
बन्दरों को मारती ढेले
मिलते नीलगाय, हिरण
उसके पेंचदार सींगों को पकड़कर
झटझोरा करती
तो उलझकर फट जाता आँचल
और फूट पड़ती उसकी हँसी
फिर तान तुड़ा भागती
जाकर कूद जाती गंगा में
चली जाती दूर तक
जहाँ चकवा के झुंड
खिल रहे होते
कमलों की तरह
खिल जाती वह भी
फेनिल लहरों पर सवार
उसकी हँसी
जब टकराती तटों से
तो कट-कटकर
गिरने लगती किनारों की मिट्टी
घर लौटती
तो घेर लेते बच्चे-
वह समझाती
बड़े और बड़े हो जाओ बबुआ
फिर ले चलूंगी गंगा जी
ललमूंहे बन्दर होते हैं वहाँ
नोच लेते हैं मुँह बच्चों का
कए-कए पोरसा दो
पानी होता है
डूबे
तो अछरंग किसे लगेगा
काडियों से काले-काले
सोंस
पलटते रहते हैं गंगा में
बच्चों को देख
लगाने लगते हैं डुबकी
हबर-हबर।