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मनखे मनखे एक समान / शीतल साहू

समाज में मचा था जब ऊच नीच का शोर
घृणा, शोषण, छुआछूत फैला था जब चहुँओर
समाज में खड़ा था जात पात की दीवार कठोर
हिंसा और अधर्म का बढ़ गया था जब जोर।

लोगो का स्वाभिमान था जब टकराया
छद्म दंभ ने था जब सबको भरमाया
अधर्म और पाखंड का ज़हर था भर गया
स्वार्थ और वर्चस्व के लिए मानव था ललचाया।

लोग भूल गए थे
सबको एक ही प्रकृति ने है बनाया
सबको एक जैसे गुणों से है सजाया
शक्ति और बुद्धि की थी बड़ी माया
विकास के दौड़ में कोई आगे तो कोई था पीछे रह गया।

प्रेम और समता की भाषा गए थे भूल
उपेक्षा और शोषण का चलता था शूल
जीने के लिए भी समाज हो गया था जब प्रतिकूल
प्रेम, ज्ञान और सत्य की बरसानी थी जब फूल।

इस धरा पर उगा तब एक सूरज, लिए प्रकाश का विहान
साधना और कठिन तप से अर्जित की जिसने सत्य का ज्ञान
कबीर सम आडंबर पर कर प्रहार, सत्य का किया गुणगान
धर्म और कर्म के दो राहों का कराया था जिसने श्रेष्ठ मिलान।

बुद्ध जैसे करुणा, समता और मध्यम मार्ग का किया जो उदगान
जात पात की भेद मिटाकर मानवता का दिया जिसने ज्ञान
ऐसे ज्ञानी तपी महात्मा के चरणो में कोटि-कोटि अर्पित नमन
सिखलाया और समझाया जिसने "मनखे मनखे एक समान"।