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मनहूस कमरा / अजित कुमार

चौक में चमक है,
सिविल लाइन्स सुहानी है,
पार्क में अनोखे फूल फूले हैं,
ख़ुशबू बिखरी है,
हवा में गीत घुले-मिले हैं…

सब कुछ है…और यह कमरा है।–
चार दीवारों में दो खिड़कियाँ,
एक दरवाज़ा और एक ही रोशनदान,
होने को तो यों वातायन काफ़ी हैं,
लेकिन हर समय यही ध्यान दिलाते हैं-
'देखो, यह कमरा है...
दरवाज़ा बन्द करो ।
खिड़कियाँ मत खोलो ।
सर्द हवा आकर फ़िज़ाँ में बस जाएगी,
ठंड लग जाएगी,
कम्बल समेट लो ।
हाँ... अब किताब खोलो,
आसमान में उगे चांद को मत देखो,
लाल-नीली पेंसिल हाथ में उठाओ,
चलो, किताब में निशान लगाओ' …

कमरे का यह शासन मुझे बेहद नापसन्द है ।

ओह, यह कमरा
जिसकी फ़र्श पर धूल है,
कागज़ के फटे हुए पुरज़े हैं,
सुराही से गिरकर फैला हुआ पानी है,
एक कुरसी, एक मेज़, एक चारपाई के बारह पाये हैं-
तीनों चौपाये वे मुरदा हैं ।

ज़िन्दा सिर्फ़ मैं हूँ या वे थोड़े से
चींटे, मकड़ियाँ और मच्छर
जिनको इस कमरे ने परवरिश दी है:
एक झींगुर किसी कोने से रात में बोलता है ।

छत पर मकड़ियों ने जाले लगाये हैं,
और यही वज़ह है कि
चाहते हुए भी मैं छत की कड़ियों को
कभी नहीं देख पाता हूँ-
कि कोई मकड़ी, कोई जाला ऊपर से गिरकर
कहीं आँख में न आ पड़े ।

दीवारों की सफ़ेदी अब मैली हो चली है,
पपड़े हर रोज़ उखड़कर फ़र्श पर गिरते हैं,
मैला फ़र्श और भी गन्दा होता है ।
खिड़कियों के शीशे शायद एक-दो बचे हैं,
बाक़ी चौखटों में दफ़्तियाँ जड़ दी गई हैं,
एक में टीन का पत्तर लगा है
जो तेज़ हवा चलने पर खड़-खड़ बजता है ।

ऐसा यह फटेहाल, दीन-हीन, जर्ज्रर,
चार दीवारों का तुच्छ, अकिंचन समूह
मुझ पर शासन करे,
मेरे अन्तर के उद्वेगों का दमन करे ।
यह मैं सह नहीं पाता ।

मन में तो आता है कि
मार-मार घूँसे सारी दफ़्तियाँ फ़ाड़ दूँ ,
शीशों को चकनाचूर कर दूँ ,
भड़भड़ाकर दरवाज़ा-खिड़कियाँ खोल दूँ ,
कम से कम एक तरफ़ की दीवार तोड़ दूँ ,
खूब ज़ोरों से चीखूँ-चिल्लाऊँ,
शोर मचाऊँ...

शान्त होकर—
सामने के गिरजाघर की मीनार देखा करूँ,
युकलिप्टस के पेड़ को देर तक निहारूँ,
मन को बादलों में भटकने को छोड़ दूँ ...

लेकिन यह कमरा है—
इसका अनुशासन है,
बार-बार मुझको यह ध्यान दिलाता है:
'देखो... दरवाज़ा बन्द करो,
खिड़कियाँ... मत खोलो,
हाँ... अब किताब उठाओ,
ध्यान... छपे हुए अक्षरों में लगाओ,
चलो...लाल-नीली पेंसिल हाथ में उठाओ'...

और फिर
फीकी-फीकी विवश हँसी हँसकर
मैं सोचता हूँ
कि:
बाहर की हवा में गीत लहर लेते हैं,
भीतर मेरी साँस दीवार से टकराती है,
और
ख़ुद मेरे ही पास लौट आती है...