(यह ग़ज़ल मनीषा जैन के लिए)
न फूल बनके वो आए न ख़ार लेके गए।
बहार बनके जो आए बहार लेके गए॥
उन आँसुओं का भी एहसान है मेरे सर पर
गए तो साथ में गर्दो-ग़ुबार लेके गए।
वो चार पल मैं जिन्हें कोई नाम दे न सका
तमाम उम्र का सब्रो-क़रार लेके गए।
सितम तो देखिए पैरों ने दिल की एक न सुनी
ये उसके दर पे मुझे बारबार लेके गए।
वो मुझ ग़रीब को तनहा बनाके छोड़ गए
गए तो मेरे सभी ग़मगुसार लेके गए।
मैं किसको अपना कहूँ और किसको बेगाना
वो मेरे दिल के सभी इख़्तियार लेके गए।
अजब हैं सोज़ की दीवानगी के अफ़साने
सुना है आपकी ख़िदमत में प्यार लेके गए॥
2002-2017