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मनी प्लांट की लताएँ / मुकेश कुमार सिन्हा

हरी भरी होकर बढ़ गई थी
उली पड़ रही थी गमले से बाहर
तोड़ रही थी सीमाएं
शायद पौधा अपने सपनों मे मस्त था
चमचमाए हरे रंगे में लचक रहा था
ढूंढ रहा था उसका लचीला तना
आगे बढ्ने का कोई जुगाड़
मिल जाये कोई अवलंब तो ऊपर उठ जाए
या मिल जाए कोई दीवार तो उस पर छा जाए
पर तभी मैंने हाथ में कटर लेकर
छांट दी उसकी तरुणाई
गिर पड़ी कुछ लंबी लताएँ
जमीन पर, निढाल होकर
ऐसे लगा मानों, हरा रक्त बह रहा हो
कटी लताएँ, थी थोड़ी उदास
परंतु थी तैयार, अस्तित्व विस्तार के लिए
अपने हिस्से की नई जमीन पाने के लिए
जीवनी शक्ति का हरा रंग वो ही था शायद
और गमले में शेष मनी प्लांट
था उद्धत अशेष होने के लिए
सही ही तो है, जिंदगी जीने की जिजीविषा
आखिर जीना इतना कठिन भी नहीं...