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मनुजा / कुमार कृष्ण

प्रेम की सबसे बड़ी कुर्बानी है नारी
इस धरती पर
वह है प्रेम की पतंग
उड़कर चली आती है पिता का घर छोड़ कर
हम कर देते हैं बन्द
परिवार के दरवाजों में उसकी हँसी
लगा देते हैं लोहे का ताला
उसके सपनों की सन्दूक पर
वह गुनगुनाता चाहती है माँ-पिता के मन्त्र
लिखना चाहती है चाँद-सूरज की कहानियाँ
बोना चाहती है पराई ज़मीन पर प्रेम के बीज
चाँद बदल जाता है रोटी में
सूरज लाल तवे में
खानादारी में सूख जाते हैं-
उसके मेंहदी के फूल
धीरे-धीरे वह माँ में बदल जाती है
सींचने लगती है बच्चों के सपने
पेड़ में बदल जाते हैं सपने
वह सोचती है मन-ही-मन
एक दिन पेड़ की टहनियों पर
वह झूला बांधेगी
बस झुलेगी अंतिम साँस तक
धीरे-धीरे बड़े होने लगते हैं पेड़
छोटी होने लगती है माँ
वह हो जाती है बहुत छोटी-
उसके हाथ नहीं पहुँच पाते पेड़ की टहनियों तक
अधूरा रह जाता है उसकी पींघ का सपना
बस उम्र भर साथ रहता है उसके सपनों में-
माँ-पिता की बाहों का झूला
वह सिखाती है बेटी को उड़ने की कला
सिखाते-सिखाते जला देती है अपने प्रेम के पंख
मनुजा फिनिक्स बन जाती है इस धरती पर।