नव चिन्तन, नव भाव-भूमिपर
नव-नव सृष्टि-विधान
करय नित नूतन मनुसन्तान।
क्षिति पर, जल पर, आर पवन पर,
वितल, तलातल, सकल भुवन पर,
अन्तरिक्षसँ पार गगन पर,
चन्द्रलोक, नक्षत्रलोक भरि
अपन सफल अभियान
करय नित नूतन मनुसन्तान।
तन पर, मन पर, जड़-चेतन पर,
प्रकृति-प्रदत्त सकल साधन पर,
पंचतत्त्व-निर्मित कणकण पर
आर अधिक की, जन्म मरण पर
स्वामित्वक अभिमान
करय नित नूतन मनुसन्तान।
भ्रमण करक हित नीा अमन्त ई,
नव ज्योतिर्मय दिग-दिगन्त ई
सभ्यताक वनमे बसन्त ई,
सर्व-शक्ति-सम्पन्न कहाबय
एक मात्र विज्ञान
जकर कर्त्ता थिक मनुसन्तान।
किन्तु विजय नहि अहंभाव पर,
मनक कलुष, विकृतिक स्वभाव पर,
मनुज चलय दनुजक स्वभाव पर,
तकनहुँ पाबि रहल नहि कत्तहु
दानवताक निदान।
विकल आकुल मन मनुसन्तान।
आइ मनुजता ग्रस्त रोगसँ,
करुणा मनुजत्वक वियोगसँ
कानि रहल अछि हृदय-दोगसँ,
छापि रहल अछि भाव-गगनकेँ
चौदिस तिमिर-वितान।
चकित मन देखय मनुसन्तान।