ख़याल है इस बात का
कि अब और आगे बढ़ी तो खाई है
हटी पीछे तो है आग
खड़ी रही तो मूर्च्छा है गिराने के लिए
ख़याल है कि जिस जगह टिके हैं पांव
वह भी खिसकने वाली है
उसमें भी एक अजीब ताप है
जो जलाता है आत्मा को
जगह बदलने की बात हो तो
जगह से जगह से बदल लूं
लेकिन यहां तो आसमान में ताकते बीते हैं बरस
देखते हुए अंधकार और प्रकाश के खेल
मेलजोल उनके
और अब एक आदत-सी पड़ गयी है
सितारों की रची-रचायी दुनिया को देखने की
चाहने की वह सीढ़ी जिससे पहुंचूं उन तक
बसने उन्हीं के बीच
मैं पहचानती हूं आखिर उनका वह झुरमुट
जिसमें मैंने भी चुना है अपना एक कोना
जहां जाकर ठहरती है पृथ्वी से लौटी उन्मुक्त हवाएं
ऋतुएं जहां जाकर सोचती हैं अपना होना
ख़याल है कि पहुंचूं वहां
जहां पहले से ही एकत्र हैं
ढेर सारी मनोकामनाओं जैसी
खुश और सुंदर स्त्रियां!