Last modified on 30 जून 2016, at 07:54

मन्दिर के भीतर / शक्ति चट्टोपाध्याय

मन्दिर के भीतर ग़लत अन्धेरा था।
बाहर सँकरा रास्ता, बिखरी-बिखरी-सी घास, छाया, पेड़
लोग-बाग़, सुनाई देती है कुल्हाड़ी की आवाज़
आसपास और दूर सुनाई देती है नदी और झरने की आवाज़
पुकारता है पक्षी
लगता है इसके पहले यह पुकार नहीं सुनी थी
किसे पुकारता है?
सूखी और पीली ध्वनि में से उभरती है तसवीर
उस तसवीर में उगता है चाँद ... टूटे बर्तन-जैसा
खौलते कड़ाहे-सा
जिसमें शोभा नहीं, शान्ति नहीं, क्रम नहीं, आँसू नहीं ...

मूल बँगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी