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मन्मश पर्वत / केदारनाथ अग्रवाल

मन्मश पर्वत
यह बसंत जो
धूप, हवा, मैदान, खेत, खलिहान, बाग में
थ्नराकर मन्मथ मदान्ध-सा रात-दिवस सांसे लेता है,
जानी अनजानी सुधियों के कितने -कितने संवेदों से
सरवर, सरिता,
लता-गुल्म को, तरू -पातों को छू लेता है
और हजारों फूलों की रंगीन सुगंधित सजी डोलियां
यहां-वहां चहुं ओर खोलकर मनमोहिनी रख देता है
वही हमारे
और तुम्हारे अन्तःपुर में
आज समाये
हमको-तुमको
आलिंगन की तन्मयता में एक बनाये।