निश्चित ही
यह आत्मा
कुशल मूर्तिकार है,
जो तराशती रहती है
इस व्यक्तित्व को निरंतर...
तन के भीतर ही रहकर।
ज्ञान, संस्कार और
अनुभव की छैनी से
कोमल प्रहार कर।
कल्पनाओं-भावनाओं
विचारों से
आकार दे सुंदर।
और अंततः
निर्लिप्त-निर्विकार
असंतुष्ट-उत्साहित-सी
वह कलाकार
चल पड़ती है,
स्वयं ही की
कृति त्याग कर
पुनः एक नव रचना हेतु
अथक निरंतर
एक अनंत यात्रा पर......